-
Question 1/50
5 / -1
Directions For Questions
परामर्श कार्यक्षेत्र से जुड़ी संस्थाओं के लिए लैपटॉप सुरक्षा एक प्राथमिक आवश्यकता है। वास्तव में, वर्तमान में लैपटॉप के नुकसान को ही संस्थाओं की सुरक्षा से जुड़ा सबसे बड़ा खतरा माना जाता है। तथापि, यह आश्चर्यजनक है कि 80% से अधिक परामर्श संस्थाओं के पास लैपटॉप सुरक्षा हेतु सशक्त नीति उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में, लैपटॉपों में न केवल परामर्श संस्थाओं से सम्बंधित अपितु उनके ग्राहकों से भी संबंधित अत्यधिक संवेदनशील जानकारी संग्रहित की जाती है। लैपटॉप की चोरी हो जाने पर संवेदनशील जानकारी आसानी से प्रतिद्वन्द्वियों अथवा उपद्रवियों के हाथ लग सकती है, जो उक्त संस्था एवं उनके ग्राहकों को हानि पहुँचाने के लिए उसका प्रयोग कर सकते हैं । इसी कारणवश, लैपटॉप सम्बन्धी आंतरिक सुरक्षा नीति की उपलब्धता, परामर्श अनुबंधों के प्रदान की मुख्य शर्त है। लैपटॉप सुरक्षा नीति में कई पहलें शामिल हैं, जैसे लैपटॉप की चोरी के कारण डाटा की हानि की रोकथाम का कर्मचारियों को प्रशिक्षण। ऐसे प्रशिक्षणों में सामान्य अनुदेश शामिल किए जाते हैं जैसेः
1. लैपटॉप के प्रयोग न किए जाने पर उसे अन्य लोगों की नज़र से दूर रखना।
2. लैपटॉप को पार्किंग स्थल में खड़ी कार की सीट पर नहीं।
3. कार्यस्थल एवं ग्राहकों के स्थान दोनों पर लैपटॉप को चेन से बांध कर रखना।
4. यह सुनिश्चित करना कि लैपटॉप पासवर्ड द्वारा सुरक्षित है।
5. लैपटॉप की नियमित बैक-अप सुनिश्चित करना।
सुरक्षात्मक उपायों के अलावा, लैपटॉप की चोरी हो जाने पर टीम द्वारा की जाने वाली
कार्रवाई का भी प्रशिक्षण कर्मचारियोंको दिया जाता है जो निम्नलिखित हैः
1. केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी कक्ष (Central IT Cell) को तत्काल सूचना प्रदान करना।
2. पुलिस को गुमशुदगी की सूचना देना।
3. केंद्रीय डाटा बेस में प्रविष्टि से जुड़े सभी संबंधित पासवर्ड एवं यूसर आईडी को ब्लॉक करना।
...view full instructions
लेखक आश्चर्यचकित क्यों है?
-
Question 2/50
5 / -1
Directions For Questions
परामर्श कार्यक्षेत्र से जुड़ी संस्थाओं के लिए लैपटॉप सुरक्षा एक प्राथमिक आवश्यकता है। वास्तव में, वर्तमान में लैपटॉप के नुकसान को ही संस्थाओं की सुरक्षा से जुड़ा सबसे बड़ा खतरा माना जाता है। तथापि, यह आश्चर्यजनक है कि 80% से अधिक परामर्श संस्थाओं के पास लैपटॉप सुरक्षा हेतु सशक्त नीति उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में, लैपटॉपों में न केवल परामर्श संस्थाओं से सम्बंधित अपितु उनके ग्राहकों से भी संबंधित अत्यधिक संवेदनशील जानकारी संग्रहित की जाती है। लैपटॉप की चोरी हो जाने पर संवेदनशील जानकारी आसानी से प्रतिद्वन्द्वियों अथवा उपद्रवियों के हाथ लग सकती है, जो उक्त संस्था एवं उनके ग्राहकों को हानि पहुँचाने के लिए उसका प्रयोग कर सकते हैं । इसी कारणवश, लैपटॉप सम्बन्धी आंतरिक सुरक्षा नीति की उपलब्धता, परामर्श अनुबंधों के प्रदान की मुख्य शर्त है। लैपटॉप सुरक्षा नीति में कई पहलें शामिल हैं, जैसे लैपटॉप की चोरी के कारण डाटा की हानि की रोकथाम का कर्मचारियों को प्रशिक्षण। ऐसे प्रशिक्षणों में सामान्य अनुदेश शामिल किए जाते हैं जैसेः
1. लैपटॉप के प्रयोग न किए जाने पर उसे अन्य लोगों की नज़र से दूर रखना।
2. लैपटॉप को पार्किंग स्थल में खड़ी कार की सीट पर नहीं।
3. कार्यस्थल एवं ग्राहकों के स्थान दोनों पर लैपटॉप को चेन से बांध कर रखना।
4. यह सुनिश्चित करना कि लैपटॉप पासवर्ड द्वारा सुरक्षित है।
5. लैपटॉप की नियमित बैक-अप सुनिश्चित करना।
सुरक्षात्मक उपायों के अलावा, लैपटॉप की चोरी हो जाने पर टीम द्वारा की जाने वाली
कार्रवाई का भी प्रशिक्षण कर्मचारियोंको दिया जाता है जो निम्नलिखित हैः
1. केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी कक्ष (Central IT Cell) को तत्काल सूचना प्रदान करना।
2. पुलिस को गुमशुदगी की सूचना देना।
3. केंद्रीय डाटा बेस में प्रविष्टि से जुड़े सभी संबंधित पासवर्ड एवं यूसर आईडी को ब्लॉक करना।
...view full instructions
लेखक के अनुसार, परामर्श संस्थाओं में लैपटॉप सुरक्षा नीति क्यों होनी चाहिए?
-
Question 3/50
5 / -1
Directions For Questions
परामर्श कार्यक्षेत्र से जुड़ी संस्थाओं के लिए लैपटॉप सुरक्षा एक प्राथमिक आवश्यकता है। वास्तव में, वर्तमान में लैपटॉप के नुकसान को ही संस्थाओं की सुरक्षा से जुड़ा सबसे बड़ा खतरा माना जाता है। तथापि, यह आश्चर्यजनक है कि 80% से अधिक परामर्श संस्थाओं के पास लैपटॉप सुरक्षा हेतु सशक्त नीति उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में, लैपटॉपों में न केवल परामर्श संस्थाओं से सम्बंधित अपितु उनके ग्राहकों से भी संबंधित अत्यधिक संवेदनशील जानकारी संग्रहित की जाती है। लैपटॉप की चोरी हो जाने पर संवेदनशील जानकारी आसानी से प्रतिद्वन्द्वियों अथवा उपद्रवियों के हाथ लग सकती है, जो उक्त संस्था एवं उनके ग्राहकों को हानि पहुँचाने के लिए उसका प्रयोग कर सकते हैं । इसी कारणवश, लैपटॉप सम्बन्धी आंतरिक सुरक्षा नीति की उपलब्धता, परामर्श अनुबंधों के प्रदान की मुख्य शर्त है। लैपटॉप सुरक्षा नीति में कई पहलें शामिल हैं, जैसे लैपटॉप की चोरी के कारण डाटा की हानि की रोकथाम का कर्मचारियों को प्रशिक्षण। ऐसे प्रशिक्षणों में सामान्य अनुदेश शामिल किए जाते हैं जैसेः
1. लैपटॉप के प्रयोग न किए जाने पर उसे अन्य लोगों की नज़र से दूर रखना।
2. लैपटॉप को पार्किंग स्थल में खड़ी कार की सीट पर नहीं।
3. कार्यस्थल एवं ग्राहकों के स्थान दोनों पर लैपटॉप को चेन से बांध कर रखना।
4. यह सुनिश्चित करना कि लैपटॉप पासवर्ड द्वारा सुरक्षित है।
5. लैपटॉप की नियमित बैक-अप सुनिश्चित करना।
सुरक्षात्मक उपायों के अलावा, लैपटॉप की चोरी हो जाने पर टीम द्वारा की जाने वाली
कार्रवाई का भी प्रशिक्षण कर्मचारियोंको दिया जाता है जो निम्नलिखित हैः
1. केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी कक्ष (Central IT Cell) को तत्काल सूचना प्रदान करना।
2. पुलिस को गुमशुदगी की सूचना देना।
3. केंद्रीय डाटा बेस में प्रविष्टि से जुड़े सभी संबंधित पासवर्ड एवं यूसर आईडी को ब्लॉक करना।
...view full instructions
लैपटॉप चोरी के कारण डाटा के नुकसान को रोकने हेतु लेखक ने निम्नलिखित में से किस उपाय का उल्लेख नहीं किया है?
-
Question 4/50
5 / -1
Directions For Questions
परामर्श कार्यक्षेत्र से जुड़ी संस्थाओं के लिए लैपटॉप सुरक्षा एक प्राथमिक आवश्यकता है। वास्तव में, वर्तमान में लैपटॉप के नुकसान को ही संस्थाओं की सुरक्षा से जुड़ा सबसे बड़ा खतरा माना जाता है। तथापि, यह आश्चर्यजनक है कि 80% से अधिक परामर्श संस्थाओं के पास लैपटॉप सुरक्षा हेतु सशक्त नीति उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में, लैपटॉपों में न केवल परामर्श संस्थाओं से सम्बंधित अपितु उनके ग्राहकों से भी संबंधित अत्यधिक संवेदनशील जानकारी संग्रहित की जाती है। लैपटॉप की चोरी हो जाने पर संवेदनशील जानकारी आसानी से प्रतिद्वन्द्वियों अथवा उपद्रवियों के हाथ लग सकती है, जो उक्त संस्था एवं उनके ग्राहकों को हानि पहुँचाने के लिए उसका प्रयोग कर सकते हैं । इसी कारणवश, लैपटॉप सम्बन्धी आंतरिक सुरक्षा नीति की उपलब्धता, परामर्श अनुबंधों के प्रदान की मुख्य शर्त है। लैपटॉप सुरक्षा नीति में कई पहलें शामिल हैं, जैसे लैपटॉप की चोरी के कारण डाटा की हानि की रोकथाम का कर्मचारियों को प्रशिक्षण। ऐसे प्रशिक्षणों में सामान्य अनुदेश शामिल किए जाते हैं जैसेः
1. लैपटॉप के प्रयोग न किए जाने पर उसे अन्य लोगों की नज़र से दूर रखना।
2. लैपटॉप को पार्किंग स्थल में खड़ी कार की सीट पर नहीं।
3. कार्यस्थल एवं ग्राहकों के स्थान दोनों पर लैपटॉप को चेन से बांध कर रखना।
4. यह सुनिश्चित करना कि लैपटॉप पासवर्ड द्वारा सुरक्षित है।
5. लैपटॉप की नियमित बैक-अप सुनिश्चित करना।
सुरक्षात्मक उपायों के अलावा, लैपटॉप की चोरी हो जाने पर टीम द्वारा की जाने वाली
कार्रवाई का भी प्रशिक्षण कर्मचारियोंको दिया जाता है जो निम्नलिखित हैः
1. केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी कक्ष (Central IT Cell) को तत्काल सूचना प्रदान करना।
2. पुलिस को गुमशुदगी की सूचना देना।
3. केंद्रीय डाटा बेस में प्रविष्टि से जुड़े सभी संबंधित पासवर्ड एवं यूसर आईडी को ब्लॉक करना।
...view full instructions
लेखक के अनुसार, लैपटॉप की चोरी होने के बाद, संभव कार्रवाइयां क्या हो सकती हैं?
-
Question 5/50
5 / -1
Directions For Questions
परामर्श कार्यक्षेत्र से जुड़ी संस्थाओं के लिए लैपटॉप सुरक्षा एक प्राथमिक आवश्यकता है। वास्तव में, वर्तमान में लैपटॉप के नुकसान को ही संस्थाओं की सुरक्षा से जुड़ा सबसे बड़ा खतरा माना जाता है। तथापि, यह आश्चर्यजनक है कि 80% से अधिक परामर्श संस्थाओं के पास लैपटॉप सुरक्षा हेतु सशक्त नीति उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में, लैपटॉपों में न केवल परामर्श संस्थाओं से सम्बंधित अपितु उनके ग्राहकों से भी संबंधित अत्यधिक संवेदनशील जानकारी संग्रहित की जाती है। लैपटॉप की चोरी हो जाने पर संवेदनशील जानकारी आसानी से प्रतिद्वन्द्वियों अथवा उपद्रवियों के हाथ लग सकती है, जो उक्त संस्था एवं उनके ग्राहकों को हानि पहुँचाने के लिए उसका प्रयोग कर सकते हैं । इसी कारणवश, लैपटॉप सम्बन्धी आंतरिक सुरक्षा नीति की उपलब्धता, परामर्श अनुबंधों के प्रदान की मुख्य शर्त है। लैपटॉप सुरक्षा नीति में कई पहलें शामिल हैं, जैसे लैपटॉप की चोरी के कारण डाटा की हानि की रोकथाम का कर्मचारियों को प्रशिक्षण। ऐसे प्रशिक्षणों में सामान्य अनुदेश शामिल किए जाते हैं जैसेः
1. लैपटॉप के प्रयोग न किए जाने पर उसे अन्य लोगों की नज़र से दूर रखना।
2. लैपटॉप को पार्किंग स्थल में खड़ी कार की सीट पर नहीं।
3. कार्यस्थल एवं ग्राहकों के स्थान दोनों पर लैपटॉप को चेन से बांध कर रखना।
4. यह सुनिश्चित करना कि लैपटॉप पासवर्ड द्वारा सुरक्षित है।
5. लैपटॉप की नियमित बैक-अप सुनिश्चित करना।
सुरक्षात्मक उपायों के अलावा, लैपटॉप की चोरी हो जाने पर टीम द्वारा की जाने वाली
कार्रवाई का भी प्रशिक्षण कर्मचारियोंको दिया जाता है जो निम्नलिखित हैः
1. केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी कक्ष (Central IT Cell) को तत्काल सूचना प्रदान करना।
2. पुलिस को गुमशुदगी की सूचना देना।
3. केंद्रीय डाटा बेस में प्रविष्टि से जुड़े सभी संबंधित पासवर्ड एवं यूसर आईडी को ब्लॉक करना।
...view full instructions
आपके अनुसार उक्त लेख का उद्देश्य क्या है?
-
Question 6/50
5 / -1
Directions For Questions
कवियों, शायरों तथा आम आदमी को सम्मोहित करने वाला 'पलाश' आज संकट में है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि इसी प्रकार पलाश का विनाश जारी रहा, तो यह 'ढाक के तीन पात' वाली कहावत में ही बचेगा। अरावली और सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं में जब पलाश वृक्ष चैत (वसंत) में फूलता था, तो लगता था कि वन में आग लग गई हो अथवा अग्नि देव फूलों के रूप में खिल उठे हों। पलाश पर एक-दो दिन में ही संकट नहीं आ गया है। पिछले तीस-चालीस वर्षों में दोना-पत्तल बनाने वाले कारखाने बढ़ने, गाँव-गाँव में चकबंदी होने तथा वन माफियाओं द्वारा अंधाधुंध कटान करने के कारण उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि प्रांतों में पलाश के वन घटकर 10% से भी कम रह गए हैं। वैज्ञानिकों ने पलाश वनों को बचाने के लिए ऊतक संवर्द्धन (टिशू कल्चर) द्वारा परखनली में पलाश के पौधों को विकसित कर एक अभियान चलाकर पलाश वन रोपने की योजना प्रस्तुत की है। हरियाणा तथा पुणे में ऐसी दो प्रयोगशालाएँ भी खोली गई हैं। एक समय था, जब बंगाल का पलाशी का मैदान तथा अरावली की पर्वत-मालाएँ टेसू के फूलों के लिए दुनियाभर में मशहूर थीं। विदेशों से लोग पलाश के रक्तिम वर्ण के फूल देखने आते थे।
महाकवि पद्माकर ने छंद-“कहैं पद्माकर परागन में, पौन हूँ में, पानन में, पिक में, पलासन पगंत है।" लिखकर पलाश की महिमा का वर्णन किया था। ब्रज, अवधी, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी लोक गीतों में पलाश के गुण गाए गए हैं। कबीर ने तो 'खांखर भया पलाश' कहकर पलाश की तुलना एक ऐसे संदर-सजीले नवयुवक से की है, जो अपनी जवानी में तो सबको आकर्षित कर लेता है, किंतु बुढ़ापे में अकेला रह जाता है। वसंत व ग्रीष्म ऋतु में जब तक टेसू में फूल व हरे-भरे पत्ते रहते हैं, उसे सभी निहारते हैं, किंतु शेष आठ महीने वह पतझड़ का शिकार होकर झाड़-झंखाड़ की तरह रह जाता है। पर्यावरण के लिए प्लास्टिक-पॉलीथीन पर रोक लगने के बाद पलाश की उपयोगिता महसूस की गई, जिसके पत्ते दोने, थैले, पत्तल, थाली, गिलास सहित न जाने कितने उपयोग में आ सकते हैं। पिछले तीस-चालीस वर्षों में 90% वन नष्ट कर डाले गए। बिना पानी के बंजर, ऊसर तक में उग आने वाले इस पेड़ की नई पीढ़ी तैयार नहीं हुई। यदि यही स्थिति रही और समाज जागरूक न हुआ, तो पलाश विलुप्त वृक्ष हो जाएगा।
...view full instructions
गद्यांश में लेखक की चिंता का क्या कारण है?
-
Question 7/50
5 / -1
Directions For Questions
कवियों, शायरों तथा आम आदमी को सम्मोहित करने वाला 'पलाश' आज संकट में है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि इसी प्रकार पलाश का विनाश जारी रहा, तो यह 'ढाक के तीन पात' वाली कहावत में ही बचेगा। अरावली और सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं में जब पलाश वृक्ष चैत (वसंत) में फूलता था, तो लगता था कि वन में आग लग गई हो अथवा अग्नि देव फूलों के रूप में खिल उठे हों। पलाश पर एक-दो दिन में ही संकट नहीं आ गया है। पिछले तीस-चालीस वर्षों में दोना-पत्तल बनाने वाले कारखाने बढ़ने, गाँव-गाँव में चकबंदी होने तथा वन माफियाओं द्वारा अंधाधुंध कटान करने के कारण उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि प्रांतों में पलाश के वन घटकर 10% से भी कम रह गए हैं। वैज्ञानिकों ने पलाश वनों को बचाने के लिए ऊतक संवर्द्धन (टिशू कल्चर) द्वारा परखनली में पलाश के पौधों को विकसित कर एक अभियान चलाकर पलाश वन रोपने की योजना प्रस्तुत की है। हरियाणा तथा पुणे में ऐसी दो प्रयोगशालाएँ भी खोली गई हैं। एक समय था, जब बंगाल का पलाशी का मैदान तथा अरावली की पर्वत-मालाएँ टेसू के फूलों के लिए दुनियाभर में मशहूर थीं। विदेशों से लोग पलाश के रक्तिम वर्ण के फूल देखने आते थे।
महाकवि पद्माकर ने छंद-“कहैं पद्माकर परागन में, पौन हूँ में, पानन में, पिक में, पलासन पगंत है।" लिखकर पलाश की महिमा का वर्णन किया था। ब्रज, अवधी, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी लोक गीतों में पलाश के गुण गाए गए हैं। कबीर ने तो 'खांखर भया पलाश' कहकर पलाश की तुलना एक ऐसे संदर-सजीले नवयुवक से की है, जो अपनी जवानी में तो सबको आकर्षित कर लेता है, किंतु बुढ़ापे में अकेला रह जाता है। वसंत व ग्रीष्म ऋतु में जब तक टेसू में फूल व हरे-भरे पत्ते रहते हैं, उसे सभी निहारते हैं, किंतु शेष आठ महीने वह पतझड़ का शिकार होकर झाड़-झंखाड़ की तरह रह जाता है। पर्यावरण के लिए प्लास्टिक-पॉलीथीन पर रोक लगने के बाद पलाश की उपयोगिता महसूस की गई, जिसके पत्ते दोने, थैले, पत्तल, थाली, गिलास सहित न जाने कितने उपयोग में आ सकते हैं। पिछले तीस-चालीस वर्षों में 90% वन नष्ट कर डाले गए। बिना पानी के बंजर, ऊसर तक में उग आने वाले इस पेड़ की नई पीढ़ी तैयार नहीं हुई। यदि यही स्थिति रही और समाज जागरूक न हुआ, तो पलाश विलुप्त वृक्ष हो जाएगा।
...view full instructions
अरावली और सतपुड़ा में पलाश के वृक्ष कैसे लगते थे?
-
Question 8/50
5 / -1
Directions For Questions
कवियों, शायरों तथा आम आदमी को सम्मोहित करने वाला 'पलाश' आज संकट में है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि इसी प्रकार पलाश का विनाश जारी रहा, तो यह 'ढाक के तीन पात' वाली कहावत में ही बचेगा। अरावली और सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं में जब पलाश वृक्ष चैत (वसंत) में फूलता था, तो लगता था कि वन में आग लग गई हो अथवा अग्नि देव फूलों के रूप में खिल उठे हों। पलाश पर एक-दो दिन में ही संकट नहीं आ गया है। पिछले तीस-चालीस वर्षों में दोना-पत्तल बनाने वाले कारखाने बढ़ने, गाँव-गाँव में चकबंदी होने तथा वन माफियाओं द्वारा अंधाधुंध कटान करने के कारण उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि प्रांतों में पलाश के वन घटकर 10% से भी कम रह गए हैं। वैज्ञानिकों ने पलाश वनों को बचाने के लिए ऊतक संवर्द्धन (टिशू कल्चर) द्वारा परखनली में पलाश के पौधों को विकसित कर एक अभियान चलाकर पलाश वन रोपने की योजना प्रस्तुत की है। हरियाणा तथा पुणे में ऐसी दो प्रयोगशालाएँ भी खोली गई हैं। एक समय था, जब बंगाल का पलाशी का मैदान तथा अरावली की पर्वत-मालाएँ टेसू के फूलों के लिए दुनियाभर में मशहूर थीं। विदेशों से लोग पलाश के रक्तिम वर्ण के फूल देखने आते थे।
महाकवि पद्माकर ने छंद-“कहैं पद्माकर परागन में, पौन हूँ में, पानन में, पिक में, पलासन पगंत है।" लिखकर पलाश की महिमा का वर्णन किया था। ब्रज, अवधी, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी लोक गीतों में पलाश के गुण गाए गए हैं। कबीर ने तो 'खांखर भया पलाश' कहकर पलाश की तुलना एक ऐसे संदर-सजीले नवयुवक से की है, जो अपनी जवानी में तो सबको आकर्षित कर लेता है, किंतु बुढ़ापे में अकेला रह जाता है। वसंत व ग्रीष्म ऋतु में जब तक टेसू में फूल व हरे-भरे पत्ते रहते हैं, उसे सभी निहारते हैं, किंतु शेष आठ महीने वह पतझड़ का शिकार होकर झाड़-झंखाड़ की तरह रह जाता है। पर्यावरण के लिए प्लास्टिक-पॉलीथीन पर रोक लगने के बाद पलाश की उपयोगिता महसूस की गई, जिसके पत्ते दोने, थैले, पत्तल, थाली, गिलास सहित न जाने कितने उपयोग में आ सकते हैं। पिछले तीस-चालीस वर्षों में 90% वन नष्ट कर डाले गए। बिना पानी के बंजर, ऊसर तक में उग आने वाले इस पेड़ की नई पीढ़ी तैयार नहीं हुई। यदि यही स्थिति रही और समाज जागरूक न हुआ, तो पलाश विलुप्त वृक्ष हो जाएगा।
...view full instructions
पलाश के वनों की संख्या कम होने का क्या कारण है?
-
Question 9/50
5 / -1
Directions For Questions
कवियों, शायरों तथा आम आदमी को सम्मोहित करने वाला 'पलाश' आज संकट में है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि इसी प्रकार पलाश का विनाश जारी रहा, तो यह 'ढाक के तीन पात' वाली कहावत में ही बचेगा। अरावली और सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं में जब पलाश वृक्ष चैत (वसंत) में फूलता था, तो लगता था कि वन में आग लग गई हो अथवा अग्नि देव फूलों के रूप में खिल उठे हों। पलाश पर एक-दो दिन में ही संकट नहीं आ गया है। पिछले तीस-चालीस वर्षों में दोना-पत्तल बनाने वाले कारखाने बढ़ने, गाँव-गाँव में चकबंदी होने तथा वन माफियाओं द्वारा अंधाधुंध कटान करने के कारण उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि प्रांतों में पलाश के वन घटकर 10% से भी कम रह गए हैं। वैज्ञानिकों ने पलाश वनों को बचाने के लिए ऊतक संवर्द्धन (टिशू कल्चर) द्वारा परखनली में पलाश के पौधों को विकसित कर एक अभियान चलाकर पलाश वन रोपने की योजना प्रस्तुत की है। हरियाणा तथा पुणे में ऐसी दो प्रयोगशालाएँ भी खोली गई हैं। एक समय था, जब बंगाल का पलाशी का मैदान तथा अरावली की पर्वत-मालाएँ टेसू के फूलों के लिए दुनियाभर में मशहूर थीं। विदेशों से लोग पलाश के रक्तिम वर्ण के फूल देखने आते थे।
महाकवि पद्माकर ने छंद-“कहैं पद्माकर परागन में, पौन हूँ में, पानन में, पिक में, पलासन पगंत है।" लिखकर पलाश की महिमा का वर्णन किया था। ब्रज, अवधी, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी लोक गीतों में पलाश के गुण गाए गए हैं। कबीर ने तो 'खांखर भया पलाश' कहकर पलाश की तुलना एक ऐसे संदर-सजीले नवयुवक से की है, जो अपनी जवानी में तो सबको आकर्षित कर लेता है, किंतु बुढ़ापे में अकेला रह जाता है। वसंत व ग्रीष्म ऋतु में जब तक टेसू में फूल व हरे-भरे पत्ते रहते हैं, उसे सभी निहारते हैं, किंतु शेष आठ महीने वह पतझड़ का शिकार होकर झाड़-झंखाड़ की तरह रह जाता है। पर्यावरण के लिए प्लास्टिक-पॉलीथीन पर रोक लगने के बाद पलाश की उपयोगिता महसूस की गई, जिसके पत्ते दोने, थैले, पत्तल, थाली, गिलास सहित न जाने कितने उपयोग में आ सकते हैं। पिछले तीस-चालीस वर्षों में 90% वन नष्ट कर डाले गए। बिना पानी के बंजर, ऊसर तक में उग आने वाले इस पेड़ की नई पीढ़ी तैयार नहीं हुई। यदि यही स्थिति रही और समाज जागरूक न हुआ, तो पलाश विलुप्त वृक्ष हो जाएगा।
...view full instructions
पलाश के वृक्षों को बचाने के लिए क्या किया जा रहा है?
-
Question 10/50
5 / -1
Directions For Questions
कवियों, शायरों तथा आम आदमी को सम्मोहित करने वाला 'पलाश' आज संकट में है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यदि इसी प्रकार पलाश का विनाश जारी रहा, तो यह 'ढाक के तीन पात' वाली कहावत में ही बचेगा। अरावली और सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं में जब पलाश वृक्ष चैत (वसंत) में फूलता था, तो लगता था कि वन में आग लग गई हो अथवा अग्नि देव फूलों के रूप में खिल उठे हों। पलाश पर एक-दो दिन में ही संकट नहीं आ गया है। पिछले तीस-चालीस वर्षों में दोना-पत्तल बनाने वाले कारखाने बढ़ने, गाँव-गाँव में चकबंदी होने तथा वन माफियाओं द्वारा अंधाधुंध कटान करने के कारण उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि प्रांतों में पलाश के वन घटकर 10% से भी कम रह गए हैं। वैज्ञानिकों ने पलाश वनों को बचाने के लिए ऊतक संवर्द्धन (टिशू कल्चर) द्वारा परखनली में पलाश के पौधों को विकसित कर एक अभियान चलाकर पलाश वन रोपने की योजना प्रस्तुत की है। हरियाणा तथा पुणे में ऐसी दो प्रयोगशालाएँ भी खोली गई हैं। एक समय था, जब बंगाल का पलाशी का मैदान तथा अरावली की पर्वत-मालाएँ टेसू के फूलों के लिए दुनियाभर में मशहूर थीं। विदेशों से लोग पलाश के रक्तिम वर्ण के फूल देखने आते थे।
महाकवि पद्माकर ने छंद-“कहैं पद्माकर परागन में, पौन हूँ में, पानन में, पिक में, पलासन पगंत है।" लिखकर पलाश की महिमा का वर्णन किया था। ब्रज, अवधी, बुंदेलखंडी, राजस्थानी, हरियाणवी, पंजाबी लोक गीतों में पलाश के गुण गाए गए हैं। कबीर ने तो 'खांखर भया पलाश' कहकर पलाश की तुलना एक ऐसे संदर-सजीले नवयुवक से की है, जो अपनी जवानी में तो सबको आकर्षित कर लेता है, किंतु बुढ़ापे में अकेला रह जाता है। वसंत व ग्रीष्म ऋतु में जब तक टेसू में फूल व हरे-भरे पत्ते रहते हैं, उसे सभी निहारते हैं, किंतु शेष आठ महीने वह पतझड़ का शिकार होकर झाड़-झंखाड़ की तरह रह जाता है। पर्यावरण के लिए प्लास्टिक-पॉलीथीन पर रोक लगने के बाद पलाश की उपयोगिता महसूस की गई, जिसके पत्ते दोने, थैले, पत्तल, थाली, गिलास सहित न जाने कितने उपयोग में आ सकते हैं। पिछले तीस-चालीस वर्षों में 90% वन नष्ट कर डाले गए। बिना पानी के बंजर, ऊसर तक में उग आने वाले इस पेड़ की नई पीढ़ी तैयार नहीं हुई। यदि यही स्थिति रही और समाज जागरूक न हुआ, तो पलाश विलुप्त वृक्ष हो जाएगा।
...view full instructions
कबीर ने पलाश की तुलना किससे की है?
-
Question 11/50
5 / -1
Directions For Questions
तत्त्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्वितीय वह, जो हमें जीना सिखलाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाए जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर परावलंबी हो। ऐसी विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही, दूसरी विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेने वाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा है, उसमें यदि वह जीवंत-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्पथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही वह अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह
भारवाही गर्दभ बन जाता है या पूँछ-सींग-विहीन पशु कहा जाता है। वर्तमान भारत में पहली विद्या का प्रायः अभाव दिखाई देता है, परंतु दूसरी विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों से शिक्षा प्राप्त करके निकला छात्र जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है, जिनसे व्यक्ति 'कु' से 'सु' बनता है, सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। यह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, किंतु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है। जीवन के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए, तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने 'अन्न' से 'आनंद' की ओर बढ़ने को जो 'विद्या का सार' कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था।
...view full instructions
वर्तमान युवक अपना बहुमूल्य समय किसमें बर्बाद कर देते हैं?
-
Question 12/50
5 / -1
Directions For Questions
तत्त्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्वितीय वह, जो हमें जीना सिखलाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाए जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर परावलंबी हो। ऐसी विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही, दूसरी विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेने वाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा है, उसमें यदि वह जीवंत-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्पथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही वह अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह
भारवाही गर्दभ बन जाता है या पूँछ-सींग-विहीन पशु कहा जाता है। वर्तमान भारत में पहली विद्या का प्रायः अभाव दिखाई देता है, परंतु दूसरी विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों से शिक्षा प्राप्त करके निकला छात्र जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है, जिनसे व्यक्ति 'कु' से 'सु' बनता है, सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। यह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, किंतु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है। जीवन के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए, तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने 'अन्न' से 'आनंद' की ओर बढ़ने को जो 'विद्या का सार' कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था।
...view full instructions
गद्यांश के अनुसार जीवन-यापन के लिए अर्जन करना कौन सिखाता है?
-
Question 13/50
5 / -1
Directions For Questions
तत्त्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्वितीय वह, जो हमें जीना सिखलाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाए जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर परावलंबी हो। ऐसी विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही, दूसरी विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेने वाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा है, उसमें यदि वह जीवंत-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्पथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही वह अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह
भारवाही गर्दभ बन जाता है या पूँछ-सींग-विहीन पशु कहा जाता है। वर्तमान भारत में पहली विद्या का प्रायः अभाव दिखाई देता है, परंतु दूसरी विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों से शिक्षा प्राप्त करके निकला छात्र जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है, जिनसे व्यक्ति 'कु' से 'सु' बनता है, सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। यह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, किंतु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है। जीवन के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए, तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने 'अन्न' से 'आनंद' की ओर बढ़ने को जो 'विद्या का सार' कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था।
...view full instructions
गद्यांश के अनुसार किसका अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है?
-
Question 14/50
5 / -1
Directions For Questions
तत्त्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्वितीय वह, जो हमें जीना सिखलाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाए जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर परावलंबी हो। ऐसी विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही, दूसरी विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेने वाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा है, उसमें यदि वह जीवंत-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्पथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही वह अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह
भारवाही गर्दभ बन जाता है या पूँछ-सींग-विहीन पशु कहा जाता है। वर्तमान भारत में पहली विद्या का प्रायः अभाव दिखाई देता है, परंतु दूसरी विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों से शिक्षा प्राप्त करके निकला छात्र जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है, जिनसे व्यक्ति 'कु' से 'सु' बनता है, सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। यह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, किंतु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है। जीवन के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए, तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने 'अन्न' से 'आनंद' की ओर बढ़ने को जो 'विद्या का सार' कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था।
...view full instructions
दूसरों पर किस प्रकार का व्यक्ति भार बन जाता है?
-
Question 15/50
5 / -1
Directions For Questions
तत्त्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्वितीय वह, जो हमें जीना सिखलाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाए जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर परावलंबी हो। ऐसी विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही, दूसरी विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेने वाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा है, उसमें यदि वह जीवंत-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्पथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही वह अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव-जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह
भारवाही गर्दभ बन जाता है या पूँछ-सींग-विहीन पशु कहा जाता है। वर्तमान भारत में पहली विद्या का प्रायः अभाव दिखाई देता है, परंतु दूसरी विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल-कॉलेजों से शिक्षा प्राप्त करके निकला छात्र जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है, जिनसे व्यक्ति 'कु' से 'सु' बनता है, सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। यह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है, हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, किंतु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है। जीवन के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए, तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने 'अन्न' से 'आनंद' की ओर बढ़ने को जो 'विद्या का सार' कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था।
...view full instructions
'क' से 'सु' बनाने में क्या आशय सन्निहित है?
-
Question 16/50
5 / -1
Directions For Questions
ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है तथा उसकी सर्वोत्कृष्ट रचना है - मानव। कण-कण में व्याप्त होने के साथ ही वह सर्वाधिक निकट हमारे अंदर स्थित है, फिर भी मानव हताश, निराश, दुःखी तथा अशांत है। इसका कारण है ईश्वरीय ज्ञान का अभाव। प्रश्न है उसे कैसे जाना जाए? ईश्वर से मिलन का सीधा-सरल तरीका है - ध्यान। ध्यान है देखना, पर इन बाहरी आँखों से नहीं, अंतर्दृष्टि से देखना। ध्यान के द्वारा मन को एकाग्र कर प्राण में, आत्मा में स्थिर किया जाता है। जैसे सूर्य की बिखरी किरणों को सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा एक बिंदु पर केंद्रित करने से अग्नि उत्पन्न होती है, वैसे ही ध्यान द्वारा चित्त की वृत्तियों के घनीभूत होने पर चैतन्य शक्ति का दिव्य प्रकाश, अमृतरस तथा अनहद संगीत के रूप में प्रकटीकरण होता है, जिसे आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। ध्यान आत्मा का भोजन तथा मुक्ति का मार्ग है, जिससे परम कच परमात्मा के रहस्यों का उद्घाटन अंतरात्मा में होता है। ध्यान सभी धर्मों का सार तथा सभी संतों एवं महापुरुषों द्वारा अपनाया गया मार्ग है। ध्यान के महत्त्व को समझे तथा किए बिना कोई भी व्यक्ति धार्मिक तथा अध्यात्मवादी नहीं हो सकता, क्योंकि ध्यान से चित्त का रूपांतरण होता है। पारलौकिक के साथ-साथ लौकिक रूप से भी ध्यान मानवोपयोगी है। मन के विकार शारीरिक व्याधियों के मूल हैं। इस साधना से श्वासों की गति नियमित होती है, जिससे व्याधिकारक चंचल मन शांत होता है और अनेक प्रकार की व्याधियों का शमन होता है। ध्यान से मस्तिष्क की क्रियाशीलता बढ़ती है, बुद्धि कुशाग्र होती है तथा समय-समय पर आने वाले प्रश्नों की समस्याओं का समाधान आंतरिक शक्ति से होता है। साधना से निष्क्रिय दायाँ मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है तथा मस्तिष्क की कार्यकुशलता और शक्ति दस गुना बढ़ जाती है। ध्यान परमानंद का झरना है। इस प्रक्रिया में आनंद की रिमझिम वर्षा होती है, क्योंकि साधक के ध्यानस्थ होने पर मस्तिष्क में तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो शांति तथा आनंद का कारण होती हैं, किंतु इस हेतु मन का शांत होना आवश्यक है। प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु आनंद केंद्र पर ध्यान कर उसे जाग्रत किया जाता है, जिससे व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति में भी खिन्न व विचलित नहीं होता तथा सदैव प्रसन्न व तनावमुक्त जीवन व्यतीत करता है। ध्यान की प्रक्रिया सरल है, किंतु आवश्यकता है इसे जानने की। तत्त्वदृष्टा सद्गुरु से इसको जानकर इसका नित्य प्रति अभ्यास करना चाहिए। यह साधना शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकारों को दूर कर सुख, समृद्धि, दीर्घायु तथा आनंद प्रदायक है। स्वयं के अतिरिक्त परिवार एवं विश्व में शांति व मंगल-भावना हेतु भी साधना आवश्यक है।
...view full instructions
गद्यांश के अनुसार शारीरिक व्याधियों का मूल किसे कहा गया है ?
-
Question 17/50
5 / -1
Directions For Questions
ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है तथा उसकी सर्वोत्कृष्ट रचना है - मानव। कण-कण में व्याप्त होने के साथ ही वह सर्वाधिक निकट हमारे अंदर स्थित है, फिर भी मानव हताश, निराश, दुःखी तथा अशांत है। इसका कारण है ईश्वरीय ज्ञान का अभाव। प्रश्न है उसे कैसे जाना जाए? ईश्वर से मिलन का सीधा-सरल तरीका है - ध्यान। ध्यान है देखना, पर इन बाहरी आँखों से नहीं, अंतर्दृष्टि से देखना। ध्यान के द्वारा मन को एकाग्र कर प्राण में, आत्मा में स्थिर किया जाता है। जैसे सूर्य की बिखरी किरणों को सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा एक बिंदु पर केंद्रित करने से अग्नि उत्पन्न होती है, वैसे ही ध्यान द्वारा चित्त की वृत्तियों के घनीभूत होने पर चैतन्य शक्ति का दिव्य प्रकाश, अमृतरस तथा अनहद संगीत के रूप में प्रकटीकरण होता है, जिसे आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। ध्यान आत्मा का भोजन तथा मुक्ति का मार्ग है, जिससे परम कच परमात्मा के रहस्यों का उद्घाटन अंतरात्मा में होता है। ध्यान सभी धर्मों का सार तथा सभी संतों एवं महापुरुषों द्वारा अपनाया गया मार्ग है। ध्यान के महत्त्व को समझे तथा किए बिना कोई भी व्यक्ति धार्मिक तथा अध्यात्मवादी नहीं हो सकता, क्योंकि ध्यान से चित्त का रूपांतरण होता है। पारलौकिक के साथ-साथ लौकिक रूप से भी ध्यान मानवोपयोगी है। मन के विकार शारीरिक व्याधियों के मूल हैं। इस साधना से श्वासों की गति नियमित होती है, जिससे व्याधिकारक चंचल मन शांत होता है और अनेक प्रकार की व्याधियों का शमन होता है। ध्यान से मस्तिष्क की क्रियाशीलता बढ़ती है, बुद्धि कुशाग्र होती है तथा समय-समय पर आने वाले प्रश्नों की समस्याओं का समाधान आंतरिक शक्ति से होता है। साधना से निष्क्रिय दायाँ मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है तथा मस्तिष्क की कार्यकुशलता और शक्ति दस गुना बढ़ जाती है। ध्यान परमानंद का झरना है। इस प्रक्रिया में आनंद की रिमझिम वर्षा होती है, क्योंकि साधक के ध्यानस्थ होने पर मस्तिष्क में तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो शांति तथा आनंद का कारण होती हैं, किंतु इस हेतु मन का शांत होना आवश्यक है। प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु आनंद केंद्र पर ध्यान कर उसे जाग्रत किया जाता है, जिससे व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति में भी खिन्न व विचलित नहीं होता तथा सदैव प्रसन्न व तनावमुक्त जीवन व्यतीत करता है। ध्यान की प्रक्रिया सरल है, किंतु आवश्यकता है इसे जानने की। तत्त्वदृष्टा सद्गुरु से इसको जानकर इसका नित्य प्रति अभ्यास करना चाहिए। यह साधना शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकारों को दूर कर सुख, समृद्धि, दीर्घायु तथा आनंद प्रदायक है। स्वयं के अतिरिक्त परिवार एवं विश्व में शांति व मंगल-भावना हेतु भी साधना आवश्यक है।
...view full instructions
मानव हताश, निराश और दुःखी क्यों रहता है?
-
Question 18/50
5 / -1
Directions For Questions
ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है तथा उसकी सर्वोत्कृष्ट रचना है - मानव। कण-कण में व्याप्त होने के साथ ही वह सर्वाधिक निकट हमारे अंदर स्थित है, फिर भी मानव हताश, निराश, दुःखी तथा अशांत है। इसका कारण है ईश्वरीय ज्ञान का अभाव। प्रश्न है उसे कैसे जाना जाए? ईश्वर से मिलन का सीधा-सरल तरीका है - ध्यान। ध्यान है देखना, पर इन बाहरी आँखों से नहीं, अंतर्दृष्टि से देखना। ध्यान के द्वारा मन को एकाग्र कर प्राण में, आत्मा में स्थिर किया जाता है। जैसे सूर्य की बिखरी किरणों को सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा एक बिंदु पर केंद्रित करने से अग्नि उत्पन्न होती है, वैसे ही ध्यान द्वारा चित्त की वृत्तियों के घनीभूत होने पर चैतन्य शक्ति का दिव्य प्रकाश, अमृतरस तथा अनहद संगीत के रूप में प्रकटीकरण होता है, जिसे आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। ध्यान आत्मा का भोजन तथा मुक्ति का मार्ग है, जिससे परम कच परमात्मा के रहस्यों का उद्घाटन अंतरात्मा में होता है। ध्यान सभी धर्मों का सार तथा सभी संतों एवं महापुरुषों द्वारा अपनाया गया मार्ग है। ध्यान के महत्त्व को समझे तथा किए बिना कोई भी व्यक्ति धार्मिक तथा अध्यात्मवादी नहीं हो सकता, क्योंकि ध्यान से चित्त का रूपांतरण होता है। पारलौकिक के साथ-साथ लौकिक रूप से भी ध्यान मानवोपयोगी है। मन के विकार शारीरिक व्याधियों के मूल हैं। इस साधना से श्वासों की गति नियमित होती है, जिससे व्याधिकारक चंचल मन शांत होता है और अनेक प्रकार की व्याधियों का शमन होता है। ध्यान से मस्तिष्क की क्रियाशीलता बढ़ती है, बुद्धि कुशाग्र होती है तथा समय-समय पर आने वाले प्रश्नों की समस्याओं का समाधान आंतरिक शक्ति से होता है। साधना से निष्क्रिय दायाँ मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है तथा मस्तिष्क की कार्यकुशलता और शक्ति दस गुना बढ़ जाती है। ध्यान परमानंद का झरना है। इस प्रक्रिया में आनंद की रिमझिम वर्षा होती है, क्योंकि साधक के ध्यानस्थ होने पर मस्तिष्क में तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो शांति तथा आनंद का कारण होती हैं, किंतु इस हेतु मन का शांत होना आवश्यक है। प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु आनंद केंद्र पर ध्यान कर उसे जाग्रत किया जाता है, जिससे व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति में भी खिन्न व विचलित नहीं होता तथा सदैव प्रसन्न व तनावमुक्त जीवन व्यतीत करता है। ध्यान की प्रक्रिया सरल है, किंतु आवश्यकता है इसे जानने की। तत्त्वदृष्टा सद्गुरु से इसको जानकर इसका नित्य प्रति अभ्यास करना चाहिए। यह साधना शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकारों को दूर कर सुख, समृद्धि, दीर्घायु तथा आनंद प्रदायक है। स्वयं के अतिरिक्त परिवार एवं विश्व में शांति व मंगल-भावना हेतु भी साधना आवश्यक है।
...view full instructions
किसके माध्यम से मन को एकाग्र कर प्राण व आत्मा में स्थिर किया जाता है?
-
Question 19/50
5 / -1
Directions For Questions
ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है तथा उसकी सर्वोत्कृष्ट रचना है - मानव। कण-कण में व्याप्त होने के साथ ही वह सर्वाधिक निकट हमारे अंदर स्थित है, फिर भी मानव हताश, निराश, दुःखी तथा अशांत है। इसका कारण है ईश्वरीय ज्ञान का अभाव। प्रश्न है उसे कैसे जाना जाए? ईश्वर से मिलन का सीधा-सरल तरीका है - ध्यान। ध्यान है देखना, पर इन बाहरी आँखों से नहीं, अंतर्दृष्टि से देखना। ध्यान के द्वारा मन को एकाग्र कर प्राण में, आत्मा में स्थिर किया जाता है। जैसे सूर्य की बिखरी किरणों को सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा एक बिंदु पर केंद्रित करने से अग्नि उत्पन्न होती है, वैसे ही ध्यान द्वारा चित्त की वृत्तियों के घनीभूत होने पर चैतन्य शक्ति का दिव्य प्रकाश, अमृतरस तथा अनहद संगीत के रूप में प्रकटीकरण होता है, जिसे आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। ध्यान आत्मा का भोजन तथा मुक्ति का मार्ग है, जिससे परम कच परमात्मा के रहस्यों का उद्घाटन अंतरात्मा में होता है। ध्यान सभी धर्मों का सार तथा सभी संतों एवं महापुरुषों द्वारा अपनाया गया मार्ग है। ध्यान के महत्त्व को समझे तथा किए बिना कोई भी व्यक्ति धार्मिक तथा अध्यात्मवादी नहीं हो सकता, क्योंकि ध्यान से चित्त का रूपांतरण होता है। पारलौकिक के साथ-साथ लौकिक रूप से भी ध्यान मानवोपयोगी है। मन के विकार शारीरिक व्याधियों के मूल हैं। इस साधना से श्वासों की गति नियमित होती है, जिससे व्याधिकारक चंचल मन शांत होता है और अनेक प्रकार की व्याधियों का शमन होता है। ध्यान से मस्तिष्क की क्रियाशीलता बढ़ती है, बुद्धि कुशाग्र होती है तथा समय-समय पर आने वाले प्रश्नों की समस्याओं का समाधान आंतरिक शक्ति से होता है। साधना से निष्क्रिय दायाँ मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है तथा मस्तिष्क की कार्यकुशलता और शक्ति दस गुना बढ़ जाती है। ध्यान परमानंद का झरना है। इस प्रक्रिया में आनंद की रिमझिम वर्षा होती है, क्योंकि साधक के ध्यानस्थ होने पर मस्तिष्क में तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो शांति तथा आनंद का कारण होती हैं, किंतु इस हेतु मन का शांत होना आवश्यक है। प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु आनंद केंद्र पर ध्यान कर उसे जाग्रत किया जाता है, जिससे व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति में भी खिन्न व विचलित नहीं होता तथा सदैव प्रसन्न व तनावमुक्त जीवन व्यतीत करता है। ध्यान की प्रक्रिया सरल है, किंतु आवश्यकता है इसे जानने की। तत्त्वदृष्टा सद्गुरु से इसको जानकर इसका नित्य प्रति अभ्यास करना चाहिए। यह साधना शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकारों को दूर कर सुख, समृद्धि, दीर्घायु तथा आनंद प्रदायक है। स्वयं के अतिरिक्त परिवार एवं विश्व में शांति व मंगल-भावना हेतु भी साधना आवश्यक है।
...view full instructions
गद्यांश के अनुसार आत्म साक्षात्कार से क्या तात्पर्य है?
-
Question 20/50
5 / -1
Directions For Questions
ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप है तथा उसकी सर्वोत्कृष्ट रचना है - मानव। कण-कण में व्याप्त होने के साथ ही वह सर्वाधिक निकट हमारे अंदर स्थित है, फिर भी मानव हताश, निराश, दुःखी तथा अशांत है। इसका कारण है ईश्वरीय ज्ञान का अभाव। प्रश्न है उसे कैसे जाना जाए? ईश्वर से मिलन का सीधा-सरल तरीका है - ध्यान। ध्यान है देखना, पर इन बाहरी आँखों से नहीं, अंतर्दृष्टि से देखना। ध्यान के द्वारा मन को एकाग्र कर प्राण में, आत्मा में स्थिर किया जाता है। जैसे सूर्य की बिखरी किरणों को सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा एक बिंदु पर केंद्रित करने से अग्नि उत्पन्न होती है, वैसे ही ध्यान द्वारा चित्त की वृत्तियों के घनीभूत होने पर चैतन्य शक्ति का दिव्य प्रकाश, अमृतरस तथा अनहद संगीत के रूप में प्रकटीकरण होता है, जिसे आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। ध्यान आत्मा का भोजन तथा मुक्ति का मार्ग है, जिससे परम कच परमात्मा के रहस्यों का उद्घाटन अंतरात्मा में होता है। ध्यान सभी धर्मों का सार तथा सभी संतों एवं महापुरुषों द्वारा अपनाया गया मार्ग है। ध्यान के महत्त्व को समझे तथा किए बिना कोई भी व्यक्ति धार्मिक तथा अध्यात्मवादी नहीं हो सकता, क्योंकि ध्यान से चित्त का रूपांतरण होता है। पारलौकिक के साथ-साथ लौकिक रूप से भी ध्यान मानवोपयोगी है। मन के विकार शारीरिक व्याधियों के मूल हैं। इस साधना से श्वासों की गति नियमित होती है, जिससे व्याधिकारक चंचल मन शांत होता है और अनेक प्रकार की व्याधियों का शमन होता है। ध्यान से मस्तिष्क की क्रियाशीलता बढ़ती है, बुद्धि कुशाग्र होती है तथा समय-समय पर आने वाले प्रश्नों की समस्याओं का समाधान आंतरिक शक्ति से होता है। साधना से निष्क्रिय दायाँ मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है तथा मस्तिष्क की कार्यकुशलता और शक्ति दस गुना बढ़ जाती है। ध्यान परमानंद का झरना है। इस प्रक्रिया में आनंद की रिमझिम वर्षा होती है, क्योंकि साधक के ध्यानस्थ होने पर मस्तिष्क में तरंगें उत्पन्न होती हैं, जो शांति तथा आनंद का कारण होती हैं, किंतु इस हेतु मन का शांत होना आवश्यक है। प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु आनंद केंद्र पर ध्यान कर उसे जाग्रत किया जाता है, जिससे व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति में भी खिन्न व विचलित नहीं होता तथा सदैव प्रसन्न व तनावमुक्त जीवन व्यतीत करता है। ध्यान की प्रक्रिया सरल है, किंतु आवश्यकता है इसे जानने की। तत्त्वदृष्टा सद्गुरु से इसको जानकर इसका नित्य प्रति अभ्यास करना चाहिए। यह साधना शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकारों को दूर कर सुख, समृद्धि, दीर्घायु तथा आनंद प्रदायक है। स्वयं के अतिरिक्त परिवार एवं विश्व में शांति व मंगल-भावना हेतु भी साधना आवश्यक है।
...view full instructions
ध्यान करने से मनुष्य को क्या लाभ होता है?
-
Question 21/50
5 / -1
Directions For Questions
समय वह सम्पत्ति है, जो प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से मिली है। जो लोग इस धन को संचित रीति से बरतते हैं, वे शारीरिक सुख तथा आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। इसी समय - सम्पत्ति के सदुपयोग से एक जंगली मनुष्य सभ्य और देवता स्वरूप बन जाता है। इसी के द्वारा 'मूर्ख' विद्वान्, 'निर्धन’ धनवान और 'अज्ञ' अनुभवी बन सकता है। संतोष, हर्ष तथा सुख मनुष्य को तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक वह उचित रीति से समय का सदुपयोग नहीं करता है। समय निःसंदेह एक रत्न-राशि है। जो कोई उसे अपरिमित और अगणित रूप से अंधाधुंध व्यय करता है, वह दिन-प्रतिदिन अकिंचन, रिक्त-हस्त और दरिद्र होता है। वह आजीवन खिन्न रहता है और अपने भाग्य को कोसता रहता है, मृत्यु भी उसे इस जंजाल और दुःख से छुड़ा नहीं सकती है।
प्रत्युत, उसके लिए मृत्यु का आगमन मानो अपराधी के लिए गिरफ़्तारी का वारंट है। सच तो यह है कि समय नष्ट करना एक प्रकार की आत्महत्या है। अंतर केवल इतना ही है कि आत्मघात सर्वदा के लिए जीवन-जंजाल से छुड़ा देता है और समय के दुरुपयोग से एक निर्दिष्ट काल तक जीवन-मृत्यु की दशा में बना रहता है। ऐसे ही मिनट, घंटे और दिन प्रमाद और अकर्मण्यता से बीतते जाते हैं। यदि मनुष्य विचार करे, गणना करे, तो उसकी संख्या महीनों तथा वर्षों तक पहुँचती है। यदि उससे कहा जाता है कि तेरी आयु के दस-पाँच वर्ष घटा दिए गए, तो निःसंदेह उसके हृदय पर भारी आघात पहुँचता है, परंतु वह स्वयं निश्चेष्ठ बैठे अपने मूल्य जीवन को नष्ट कर रहा है और क्षय एवं विनाश पर कुछ भी शक नहीं करता है। संसार में सबको दीर्घायु प्राप्त नहीं होती है, परंतु सबसे बड़ी हानि जो समय की दुरुपयोगिता एवं अकर्मण्यता से होती है, वह यह कि पुरुषार्थहीन और निरीह पुरुष के विचार अपवित्र और दूषित हो जाते हैं। वास्तव में, बात तो यह है कि मनुष्य कुछ-न-कुछ करने के लिए ही बनाया गया है। जब चित्त और मन लाभदायक कर्म में नहीं लगते, तब उनका झुकाव बुराई और पाप की ओर अवश्य हो जाता है। इस हेतु यदि मनुष्य सचमुच ही मनुष्य बनना चाहता है, तो सब कर्मों से बढ़कर श्रेष्ठ कार्य उसके लिए यह है कि वह एक पल भी व्यर्थ न गँवाए। प्रत्येक कार्य के लिए पृथक् समय और प्रत्येक समय के लिए पृथक् कार्य निश्चित करें।
...view full instructions
मनुष्य को वास्तविक अर्थ में मनुष्य बनने के लिए क्या करना चाहिए?
-
Question 22/50
5 / -1
Directions For Questions
समय वह सम्पत्ति है, जो प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से मिली है। जो लोग इस धन को संचित रीति से बरतते हैं, वे शारीरिक सुख तथा आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। इसी समय - सम्पत्ति के सदुपयोग से एक जंगली मनुष्य सभ्य और देवता स्वरूप बन जाता है। इसी के द्वारा 'मूर्ख' विद्वान्, 'निर्धन’ धनवान और 'अज्ञ' अनुभवी बन सकता है। संतोष, हर्ष तथा सुख मनुष्य को तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक वह उचित रीति से समय का सदुपयोग नहीं करता है। समय निःसंदेह एक रत्न-राशि है। जो कोई उसे अपरिमित और अगणित रूप से अंधाधुंध व्यय करता है, वह दिन-प्रतिदिन अकिंचन, रिक्त-हस्त और दरिद्र होता है। वह आजीवन खिन्न रहता है और अपने भाग्य को कोसता रहता है, मृत्यु भी उसे इस जंजाल और दुःख से छुड़ा नहीं सकती है।
प्रत्युत, उसके लिए मृत्यु का आगमन मानो अपराधी के लिए गिरफ़्तारी का वारंट है। सच तो यह है कि समय नष्ट करना एक प्रकार की आत्महत्या है। अंतर केवल इतना ही है कि आत्मघात सर्वदा के लिए जीवन-जंजाल से छुड़ा देता है और समय के दुरुपयोग से एक निर्दिष्ट काल तक जीवन-मृत्यु की दशा में बना रहता है। ऐसे ही मिनट, घंटे और दिन प्रमाद और अकर्मण्यता से बीतते जाते हैं। यदि मनुष्य विचार करे, गणना करे, तो उसकी संख्या महीनों तथा वर्षों तक पहुँचती है। यदि उससे कहा जाता है कि तेरी आयु के दस-पाँच वर्ष घटा दिए गए, तो निःसंदेह उसके हृदय पर भारी आघात पहुँचता है, परंतु वह स्वयं निश्चेष्ठ बैठे अपने मूल्य जीवन को नष्ट कर रहा है और क्षय एवं विनाश पर कुछ भी शक नहीं करता है। संसार में सबको दीर्घायु प्राप्त नहीं होती है, परंतु सबसे बड़ी हानि जो समय की दुरुपयोगिता एवं अकर्मण्यता से होती है, वह यह कि पुरुषार्थहीन और निरीह पुरुष के विचार अपवित्र और दूषित हो जाते हैं। वास्तव में, बात तो यह है कि मनुष्य कुछ-न-कुछ करने के लिए ही बनाया गया है। जब चित्त और मन लाभदायक कर्म में नहीं लगते, तब उनका झुकाव बुराई और पाप की ओर अवश्य हो जाता है। इस हेतु यदि मनुष्य सचमुच ही मनुष्य बनना चाहता है, तो सब कर्मों से बढ़कर श्रेष्ठ कार्य उसके लिए यह है कि वह एक पल भी व्यर्थ न गँवाए। प्रत्येक कार्य के लिए पृथक् समय और प्रत्येक समय के लिए पृथक् कार्य निश्चित करें।
...view full instructions
समय के सदुपयोग से क्या लाभ होता है?
-
Question 23/50
5 / -1
Directions For Questions
समय वह सम्पत्ति है, जो प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से मिली है। जो लोग इस धन को संचित रीति से बरतते हैं, वे शारीरिक सुख तथा आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। इसी समय - सम्पत्ति के सदुपयोग से एक जंगली मनुष्य सभ्य और देवता स्वरूप बन जाता है। इसी के द्वारा 'मूर्ख' विद्वान्, 'निर्धन’ धनवान और 'अज्ञ' अनुभवी बन सकता है। संतोष, हर्ष तथा सुख मनुष्य को तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक वह उचित रीति से समय का सदुपयोग नहीं करता है। समय निःसंदेह एक रत्न-राशि है। जो कोई उसे अपरिमित और अगणित रूप से अंधाधुंध व्यय करता है, वह दिन-प्रतिदिन अकिंचन, रिक्त-हस्त और दरिद्र होता है। वह आजीवन खिन्न रहता है और अपने भाग्य को कोसता रहता है, मृत्यु भी उसे इस जंजाल और दुःख से छुड़ा नहीं सकती है।
प्रत्युत, उसके लिए मृत्यु का आगमन मानो अपराधी के लिए गिरफ़्तारी का वारंट है। सच तो यह है कि समय नष्ट करना एक प्रकार की आत्महत्या है। अंतर केवल इतना ही है कि आत्मघात सर्वदा के लिए जीवन-जंजाल से छुड़ा देता है और समय के दुरुपयोग से एक निर्दिष्ट काल तक जीवन-मृत्यु की दशा में बना रहता है। ऐसे ही मिनट, घंटे और दिन प्रमाद और अकर्मण्यता से बीतते जाते हैं। यदि मनुष्य विचार करे, गणना करे, तो उसकी संख्या महीनों तथा वर्षों तक पहुँचती है। यदि उससे कहा जाता है कि तेरी आयु के दस-पाँच वर्ष घटा दिए गए, तो निःसंदेह उसके हृदय पर भारी आघात पहुँचता है, परंतु वह स्वयं निश्चेष्ठ बैठे अपने मूल्य जीवन को नष्ट कर रहा है और क्षय एवं विनाश पर कुछ भी शक नहीं करता है। संसार में सबको दीर्घायु प्राप्त नहीं होती है, परंतु सबसे बड़ी हानि जो समय की दुरुपयोगिता एवं अकर्मण्यता से होती है, वह यह कि पुरुषार्थहीन और निरीह पुरुष के विचार अपवित्र और दूषित हो जाते हैं। वास्तव में, बात तो यह है कि मनुष्य कुछ-न-कुछ करने के लिए ही बनाया गया है। जब चित्त और मन लाभदायक कर्म में नहीं लगते, तब उनका झुकाव बुराई और पाप की ओर अवश्य हो जाता है। इस हेतु यदि मनुष्य सचमुच ही मनुष्य बनना चाहता है, तो सब कर्मों से बढ़कर श्रेष्ठ कार्य उसके लिए यह है कि वह एक पल भी व्यर्थ न गँवाए। प्रत्येक कार्य के लिए पृथक् समय और प्रत्येक समय के लिए पृथक् कार्य निश्चित करें।
...view full instructions
संतोष, हर्ष और सुख मनुष्य को कैसे प्राप्त होते हैं?
-
Question 24/50
5 / -1
Directions For Questions
समय वह सम्पत्ति है, जो प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से मिली है। जो लोग इस धन को संचित रीति से बरतते हैं, वे शारीरिक सुख तथा आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। इसी समय - सम्पत्ति के सदुपयोग से एक जंगली मनुष्य सभ्य और देवता स्वरूप बन जाता है। इसी के द्वारा 'मूर्ख' विद्वान्, 'निर्धन’ धनवान और 'अज्ञ' अनुभवी बन सकता है। संतोष, हर्ष तथा सुख मनुष्य को तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक वह उचित रीति से समय का सदुपयोग नहीं करता है। समय निःसंदेह एक रत्न-राशि है। जो कोई उसे अपरिमित और अगणित रूप से अंधाधुंध व्यय करता है, वह दिन-प्रतिदिन अकिंचन, रिक्त-हस्त और दरिद्र होता है। वह आजीवन खिन्न रहता है और अपने भाग्य को कोसता रहता है, मृत्यु भी उसे इस जंजाल और दुःख से छुड़ा नहीं सकती है।
प्रत्युत, उसके लिए मृत्यु का आगमन मानो अपराधी के लिए गिरफ़्तारी का वारंट है। सच तो यह है कि समय नष्ट करना एक प्रकार की आत्महत्या है। अंतर केवल इतना ही है कि आत्मघात सर्वदा के लिए जीवन-जंजाल से छुड़ा देता है और समय के दुरुपयोग से एक निर्दिष्ट काल तक जीवन-मृत्यु की दशा में बना रहता है। ऐसे ही मिनट, घंटे और दिन प्रमाद और अकर्मण्यता से बीतते जाते हैं। यदि मनुष्य विचार करे, गणना करे, तो उसकी संख्या महीनों तथा वर्षों तक पहुँचती है। यदि उससे कहा जाता है कि तेरी आयु के दस-पाँच वर्ष घटा दिए गए, तो निःसंदेह उसके हृदय पर भारी आघात पहुँचता है, परंतु वह स्वयं निश्चेष्ठ बैठे अपने मूल्य जीवन को नष्ट कर रहा है और क्षय एवं विनाश पर कुछ भी शक नहीं करता है। संसार में सबको दीर्घायु प्राप्त नहीं होती है, परंतु सबसे बड़ी हानि जो समय की दुरुपयोगिता एवं अकर्मण्यता से होती है, वह यह कि पुरुषार्थहीन और निरीह पुरुष के विचार अपवित्र और दूषित हो जाते हैं। वास्तव में, बात तो यह है कि मनुष्य कुछ-न-कुछ करने के लिए ही बनाया गया है। जब चित्त और मन लाभदायक कर्म में नहीं लगते, तब उनका झुकाव बुराई और पाप की ओर अवश्य हो जाता है। इस हेतु यदि मनुष्य सचमुच ही मनुष्य बनना चाहता है, तो सब कर्मों से बढ़कर श्रेष्ठ कार्य उसके लिए यह है कि वह एक पल भी व्यर्थ न गँवाए। प्रत्येक कार्य के लिए पृथक् समय और प्रत्येक समय के लिए पृथक् कार्य निश्चित करें।
...view full instructions
मनुष्य निर्दिष्ट काल तक जीवन-मृत्यु की दशा में कब बना रहता है?
-
Question 25/50
5 / -1
Directions For Questions
समय वह सम्पत्ति है, जो प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर की ओर से मिली है। जो लोग इस धन को संचित रीति से बरतते हैं, वे शारीरिक सुख तथा आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। इसी समय - सम्पत्ति के सदुपयोग से एक जंगली मनुष्य सभ्य और देवता स्वरूप बन जाता है। इसी के द्वारा 'मूर्ख' विद्वान्, 'निर्धन’ धनवान और 'अज्ञ' अनुभवी बन सकता है। संतोष, हर्ष तथा सुख मनुष्य को तब तक प्राप्त नहीं होता, जब तक वह उचित रीति से समय का सदुपयोग नहीं करता है। समय निःसंदेह एक रत्न-राशि है। जो कोई उसे अपरिमित और अगणित रूप से अंधाधुंध व्यय करता है, वह दिन-प्रतिदिन अकिंचन, रिक्त-हस्त और दरिद्र होता है। वह आजीवन खिन्न रहता है और अपने भाग्य को कोसता रहता है, मृत्यु भी उसे इस जंजाल और दुःख से छुड़ा नहीं सकती है।
प्रत्युत, उसके लिए मृत्यु का आगमन मानो अपराधी के लिए गिरफ़्तारी का वारंट है। सच तो यह है कि समय नष्ट करना एक प्रकार की आत्महत्या है। अंतर केवल इतना ही है कि आत्मघात सर्वदा के लिए जीवन-जंजाल से छुड़ा देता है और समय के दुरुपयोग से एक निर्दिष्ट काल तक जीवन-मृत्यु की दशा में बना रहता है। ऐसे ही मिनट, घंटे और दिन प्रमाद और अकर्मण्यता से बीतते जाते हैं। यदि मनुष्य विचार करे, गणना करे, तो उसकी संख्या महीनों तथा वर्षों तक पहुँचती है। यदि उससे कहा जाता है कि तेरी आयु के दस-पाँच वर्ष घटा दिए गए, तो निःसंदेह उसके हृदय पर भारी आघात पहुँचता है, परंतु वह स्वयं निश्चेष्ठ बैठे अपने मूल्य जीवन को नष्ट कर रहा है और क्षय एवं विनाश पर कुछ भी शक नहीं करता है। संसार में सबको दीर्घायु प्राप्त नहीं होती है, परंतु सबसे बड़ी हानि जो समय की दुरुपयोगिता एवं अकर्मण्यता से होती है, वह यह कि पुरुषार्थहीन और निरीह पुरुष के विचार अपवित्र और दूषित हो जाते हैं। वास्तव में, बात तो यह है कि मनुष्य कुछ-न-कुछ करने के लिए ही बनाया गया है। जब चित्त और मन लाभदायक कर्म में नहीं लगते, तब उनका झुकाव बुराई और पाप की ओर अवश्य हो जाता है। इस हेतु यदि मनुष्य सचमुच ही मनुष्य बनना चाहता है, तो सब कर्मों से बढ़कर श्रेष्ठ कार्य उसके लिए यह है कि वह एक पल भी व्यर्थ न गँवाए। प्रत्येक कार्य के लिए पृथक् समय और प्रत्येक समय के लिए पृथक् कार्य निश्चित करें।
...view full instructions
"यदि मनुष्य विचार करे, गणना करे, तो उसकी संख्या महीनों तथा वर्षों तक पहुँचती है", वाक्य में 'उसकी' शब्द किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
-
Question 26/50
5 / -1
‘पीने की इच्छा’ को कहते हैं –
-
Question 27/50
5 / -1
‘पवन’ का संधि विच्छेद है:
-
Question 28/50
5 / -1
'तिल' का अर्थ है:
-
Question 29/50
5 / -1
'प्रति' उपसर्ग से बना शब्द हैः
-
Question 30/50
5 / -1
'पंचवटी' में कौन सा समास है?
-
Question 31/50
5 / -1
'सुधा' का पर्यायवाची शब्द क्या है?
-
Question 32/50
5 / -1
'निष्काम' का विलोम शब्द हैः
-
Question 33/50
5 / -1
इत्र और इतर का क्या अर्थ है ?
-
Question 34/50
5 / -1
शुद्ध वाक्य है:
-
Question 35/50
5 / -1
‘घर का शेर’ मुहावरे का क्या अर्थ है?
-
Question 36/50
5 / -1
निम्न लिखित 6 वाक्याशों में से प्रथम व अंतिम निश्चित हैं, शेष को उचित क्रम में व्यवस्थित कीजिए।
(1) कबीर अकेले संत कवि हैं
(य) को सर्वोच्य मूल्य के
(र) जिन्होंने समस्त धार्मिक
(ल) नकार कर सहज जीवन-पद्धति
(व) आडम्बरों एवं बाह्याचारों को
(6) रूप में प्रतिष्ठित किया है
-
Question 37/50
5 / -1
निम्नलिखित शब्दों में 'तत्सम' शब्द को पहचानिए।
-
Question 38/50
5 / -1
'उन्' उपसर्ग से बना शब्द हैः
-
Question 39/50
5 / -1
तद्भव शब्द है:
-
Question 40/50
5 / -1
'नौ दिन चले अढ़ाई कोस' लोकोक्ति का भावार्थ हैः
-
Question 41/50
5 / -1
निम्न लिखित 6 वाक्याशों में से प्रथम व अंतिम निश्चित हैं, शेष को उचित क्रम में व्यवस्थित कीजिए।
(1) विश्व की रंग संस्कृतियों में
(य) तथा अनुपम सौंदर्य दृष्टि
(र) अपनी प्राचीनता, अनोखी कल्पनाशीलता
(ल) भारतीय रंगमंच परम्परा
(व) के कारण आज भी
(6) अपना विशिष्ट स्थान रखता है
-
Question 42/50
5 / -1
‘कलेजा ठंडा होना’ मुहावरे का अर्थ बताइए।
-
Question 43/50
5 / -1
इनमें से ‘इति’ किसका पर्यायवाची शब्द है ?
-
Question 44/50
5 / -1
निम्नलिखित प्रश्न में, चार विकल्पों में से, रिक्त स्थान के लिए निर्देशानुसार उचित विकल्प का चयन करें।
मंदिर _______ स्थित सोने का कलश उसकी सुन्दरता बढ़ा रहा था।
-
Question 45/50
5 / -1
. कबूतर दाने चुगते हैं - वाक्य के रेखांकित शब्द के लिए उपयुक्त पर्यायवाची बताइए।
-
Question 46/50
5 / -1
'सीता स्कूल गयी है' यह वाक्य निम्न में से किस काल को दर्शाता है?
-
Question 47/50
5 / -1
‘मूक' का विलोम शब्द होगा :
-
Question 48/50
5 / -1
नीचे दिये गये विकल्पों में से सही विकल्प द्वारा रिक्त स्थान की पूर्ति कीजिये।
'संध्या होते ही पक्षी अपने ________ को लौट आते है।'
-
Question 49/50
5 / -1
नीचे दिए गए वाक्यों में a, b, c, d को सही क्रम में व्यवस्थित कीजिए
1. जीवन
a. प्रत्येक व्यक्ति को
b. मौके भी
c. कठिनाइयों के
d. साथ-साथ
2. प्रदान करता है।
-
Question 50/50
5 / -1
'पक्षी' शब्द का पर्यायवाची है-